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ब्रेन सिर्फ सच समझता है और सच को मानता है उसे किसी बात या घटना का झूठा यकीन दिलाना बहुत कठिन है उस सच की वास्तविकता भले ही झूठ हो या आभासीय हो ।
यदि किसी गहरे भावनात्मक सम्वन्ध में ब्रेन को आभासीय या झूठा यकीन दिलाया जाये तो ब्रेन उस भावनात्मक सम्वन्ध में थोडा सा भी अंतर स्वीकार नहीं करता है ।
ब्रेन खुद अपने आप को मूर्ख बनाता रहता है वह खुद अपनी भ्रमित दुनिया का निर्माण करता और उसी को सच मान कर उसी में जीना चाहता है ।
बहुत साधारण बात है यदि किसी को यकीन दिलाया जाये की उसका बच्चा दुनिया में नहीं रहा यह उदाहरण है । इस तरह के अन्य उदाहरण हो सकते है जहाँ गहरे भावनात्मक सम्वन्ध होते है वहाँ ब्रेन सिर्फ ,देख कर ,सुन कर और अनुभव करने के बाद ही घटना को मानता है और स्वीकार करता है अन्य किसी अवस्था को ब्रेन नहीं स्वीकारता। इसलिए गहरे भावनात्मक संवंधों में तब तक किसी को नहीं भूला जा सकता जब तक वह जीवित है ।भले वह जीवित व्यक्ति किसी को कितनी भी तकलीफ देता रहे फिर भी तकलीफमय व्यक्ति तकलीफ में जीता रहेगा पर खुस होने के लिए झूठा और आभासीय विश्वास पैदा नहीं कर पाता है यदि कर ले तो वह खुस हो सकता है पर ब्रेन ऐंसा नहीं होने देता है।
हलाकि तपस्या और वैराग्य का सीधा मनोवैज्ञानिक भावार्थ यही होता है की आप भावनात्मक सम्वन्ध से मुक्त हो क्योंकि दुःख अज्ञानता से पैदा होता है जबकि गहरे भावनात्मक संवंधों के विकल्प नहीं होते क्योंकि सांसारिक व्यक्ति भावनाओं में जीता है और भावनाएं उसे दुःख और सुख दोनों देती हैं ।
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