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बहुत सारे जोड़ों को तोड़ ने के पश्चात , अंतिम जोड़ जो नही टूटे वह सत्य है या वह परिणाम है या वह शाश्वत है या वह सर्वव्यापी है इसलिए विज्ञान और अध्यात्म एक ही पथ पर कार्य करते है इसलिए ये दोनों सिर्फ अंतिम परिणाम को पाने में विश्वाश करते है तथा किसी की प्रगति उसका अंतिम परिणाम हो सकती है ।
जबकि इंसान अनेको भावनाओं का एक समुच्य या जोड़ है जब तक वह समुच्य या जोड़ नही टूटता है तब तक उसमे से उसका वास्तविक स्वरुप बाहर नही निकलता है ,
जबकि किसी भी इंसान का समुच्य किसी न किसी अबधी के उपरान्त आवश्यक रूप से टूटता है क्योंकि किसी भी मनुष्य में उसका सार उसकी भावनाये होती है जो उसे दुसरो के द्ववारा अभिग्रहित की हुई होती है इसलिए किसी विशेष उम्र तक इंसान का वर्तमान किसी के सामने प्रगट नही होता है जबकि मनोवैज्ञानिक रूप से स्वयं इंसान अपने स्वरुप से परिचित नही होता है जबकि उसका मूल स्वरुप विशेष अवस्थाओं में प्रगट होने लगता है क्योंकि समय के साथ वह
टूटने लगता है।
(i) भय और अकेलापन इंसान को अपने मूल स्वरुप से परिचित करवाता है क्योंकि वह टूटने लगता है, जो अचानक पैदा होता है और इंसान अपना प्रिजेंट्स ऑफ़ माइंड खो बेठता है उसके निर्णय करने की क्षमताएं नगण्य हो जाती है ।
(ii) सामान्यतः इंसान को यह आभाष भी नही होता है की वह ईश्वर की आराधना क्यों करता है ? जबकि पैसे से सब कुछ सम्भव हो सकता है ? जबकि मनोवैज्ञानिक रूप से मुक्त अवस्था या उसका टूटना उसे ईश्वर की अनुभूति करवा सकता है इसलिए ईश्वर बहुत प्रायोगिक है वे कभी सेद्धान्तिक नही हो सकते है ।
(iii) आज किसी की वर्तमान अवस्था उसका अंतिम परिणाम निर्धारित नही कर सकती है क्योंकि बुरे से बुरा की कोई परिभाषा नही हो सकती है और अच्छे से अच्छा की कोई परिभाषा नही हो सकती है जबकि भौतिक रूप से या मनोवैज्ञानिक रूप से किसी भी रूप में बुरा अंतिम बुरा नही हो सकता है और अच्छा अंतिम अच्छा नही हो सकता है यह पूरी तरह इंसान कि भाबनाओं के जोड़ पर निर्भर करता है वह किस स्तर की ऊर्जा से जुडी हुई है ,और वह कब टूटेगी ।
(iv) व्यक्तिगत ,इंडिविज्युली इंसान मरे इसके पहले प्रकृति इंसान को इंसान से परिचित जरूर करवाती है यथा आप किसी के लिए क्या थे ? और आप किसी के लिए क्यों थे ? और उसका पारितोष क्या है ।
(v) सामान्यतः इंसान सिर्फ अपने मनोविज्ञान को नही समझ पाता है क्योंकि इंसान में उसकी भावनाएं उसे समझने का समय नही देती हैं तथा वह दूसरे को समझने की कोसिस करता रहता है जबकि वह अपने आप को जितना समझेगा उतना ही दूसरे को समझ सकता है और कभी कभी वह अपोजिट सेक्स को समझने की कोसिस करता है परन्तु दोनों में “”क्रोमोसोमल”अंतर होता है जो दोनों की भावनाओं को विपरीत करने बाला जैविक कारक है ,जो किसी को यह अहसास कराता है की वह लड़का है या लड़की ,तथा उसके शारीरिक लक्षणों को अभिव्यक्त करता है ,
जबकि किसी को औरत को समझने के लिए औरत को आत्मसात करना पड़ेगा और किसी को आदमी को समझने के लिए आदमी को आत्मसात करना पड़ेगा सिर्फ अपोजिट सेक्स के संदर्भ में क्योंकि आप जो है उसे तो आप स्वाभिक रूप से समझ सकते हैं ।
(vi) जबकि अतेंद्रियों को सैद्धान्तिक रूप से नही समझा जा सकता क्योंकि वह विखण्डन प्रक्रिया है और बहुत प्रयोगिक है ,जो सिर्फ एकांत है इसलिए अनेकांत इन्द्रिय और बुद्धि है।

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